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स॒दृशी॑र॒द्य स॒दृशी॒रिदु॒ श्वो दी॒र्घं स॑चन्ते॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑। अ॒न॒व॒द्यास्त्रिं॒शतं॒ योज॑ना॒न्येकै॑का॒ क्रतुं॒ परि॑ यन्ति स॒द्यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sadṛśīr adya sadṛśīr id u śvo dīrghaṁ sacante varuṇasya dhāma | anavadyās triṁśataṁ yojanāny ekaikā kratum pari yanti sadyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ऽदृशीः॑। अ॒द्य। स॒ऽदृशीः॑। इत्। ऊँ॒ इति॑। श्वः। दी॒र्घम्। स॒च॒न्ते॒। वरु॑णस्य। धाम॑। अ॒न॒व॒द्याः। त्रिं॒शत॑म्। योज॑नानि। एका॑ऽएका। क्रतु॑म्। परि॑। य॒न्ति॒। स॒द्यः ॥ १.१२३.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अद्य) आज के दिन (अनवद्याः) प्रशंसित (सदृशीः) एकसी (उ) अथवा तो (श्वः) अगले दिन (सदृशीः) एकसी रात्रि और प्रभात वेला (वरुणस्य) पवन के (दीर्घम्) बड़े समय वा (धाम) स्थान को (सचन्ते) संयोग को प्राप्त होती और (एकैका) उनमें से प्रत्येक (त्रिंशतम्, योजनानि) एकसौ बीस क्रोश और (क्रतुम्) कर्म को (सद्यः) शीघ्र (परि, यन्ति) पर्य्याय से प्राप्त होती हैं, वे (इत्) व्यर्थ किसी को न खोना चाहिये ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर के नियम को प्राप्त जो हो गये, होते और होनेवाले रात्रि-दिन हैं उनका अन्यथापन नहीं होता, वैसे ही इस सब संसार के क्रम का विपरीत भाव नहीं होता तथा जो मनुष्य आलस को छोड़ सृष्टिक्रम की अनुकूलता से अच्छा यत्न किया करते हैं, वे प्रशंसित विद्या और ऐश्वर्य्यवाले होते हैं और जैसे यह रात्रि दिन नियत समय आता और जाता वैसे ही मनुष्यों को व्यवहारों में सदा अपना वर्ताव रखना चाहिये ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

या अद्य अनवद्या सदृशीरु श्वः सदृशीर्वरुणस्य दीर्घं धाम सचन्ते। एकैका त्रिंशतं योजनानि क्रतुं सद्यः परियन्ति ता इद् व्यर्थाः केनचिन्नो नेयाः ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सदृशीः) सदृश्यो रात्र्य उषसश्च (अद्य) अस्मिन् दिने (सदृशीः) (इत्) एव (उ) वितर्के (श्वः) आगामिदिने (दीर्घम्) महान्तं समयम् (सचन्ते) समवेता वर्त्तन्ते (वरुणस्य) वायोः (धाम) स्थानम् (अनवद्याः) अनिन्दिताः (त्रिंशतम्) (योजनानि) विंशत्यधिकशतं क्रोशान् (एकैका) (क्रतुम्) कर्म (परि) (यन्ति) (सद्यः) शीघ्रम् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - यथेश्वरनियमनियतानां गतानां वर्त्तमानानामागामिनां च रात्रिदिनानामन्यथात्वं न जायते तथैव सर्वस्याः सृष्टेः क्रमविपर्यासो न भवति तथा ये मनुष्या आलस्यं विहाय सृष्टिक्रमानुकूलतया प्रयतन्ते ते प्रशंसितविद्यैश्वर्या जायन्ते यथैतद्रात्रिदिनं यथा समयं यात्यायाति च तथैव मनुष्यैर्व्यवहारेषु सदा वर्त्तितव्यम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे ईश्वरी नियमाप्रमाणे रात्र व दिवस होऊन गेलेले आहेत होत आहेत व होणारे आहेत. ते वर्तमान भूत भविष्यात एकसारखे असतात, त्यात वेगळेपणा नसतो. या संसाराचा क्रम विपरीत नसतो. जी माणसे आळस सोडून सृष्टिक्रमाच्या अनुकूलतेनुसार प्रयत्न करतात ती प्रशंसित होतात व विद्यावान आणि ऐश्वर्यवान होतात. जसे रात्र व दिवस वेळेवर येतात जातात तसेच माणसाचे व्यवहारात वर्तन असावे. ॥ ८ ॥